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काई और काँच / भावना सक्सैना

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मेरी खिड़की का काँच
हर सुबह पीता है धूप,
करता है रोशन कमरे को
धूल सबसे पहले उसी पर चढ़ती है।
पिछली दीवार पर चिपकी है काई
न हिलती, न झुकती
हर मौसम में हरी दिखती है।

पानियों की सभा में
झीलें अक्सर
मौन रहती हैं,
पर पहाड़ उतारते हैं स्वयं को
झीलों की गहराई में।

कुछ दीप ऐसे होते हैं
जो रोशनी नहीं देते,
बस तेल की गंध से
अपनी उपस्थिति जताते हैं।

कुछ पाँव — चुपचाप मिट्टी ओढ़े
हर दिन एक नई राह गढ़ते हैं,
और कुछ पदचिह्न —
हर शाम वही रास्ता दुहराते हैं
जिसे सुबह किसी और ने चलकर छोड़ा था।

पेड़ों की छाया अक्सर
चर्चा में रहती है
शाखों से ज़्यादा,
लेकिन फल
हमेशा वहाँ गिरते हैं,
जहाँ जड़ें चुपचाप गहरी हुई हों।

कुछ काम धूप की तरह होते हैं —
न रोशनी माँगते हैं, न गवाह।
बस धीरे-धीरे
सारे मौसम बदल देते हैं।
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