प्रेम एक बीज है / भावना सक्सैना
प्रेम एक बीज है
गिरता है चुपचाप
मन की गीली मिट्टी में,
बिना शोर, बिना घोषणा।
ना उसे रोशनी चाहिए तुरंत,
ना ही बारिश की बौछार,
वो अँधेरे की गहराइयों में
अपना स्वर गढ़ता है।
वो टूटता है भीतर—
बिखरता है, सड़ता है,
तभी अंकुर फूटता है—
प्रेम यूँ ही फलता है।
ना हर बीज पेड़ बनता है,
ना हर प्रेम अमर होता है,
पर जो धरती समझ बन जाए,
वहाँ प्रेम, एक वटवृक्ष भी होता है।
उसे समय चाहिए—
तुम्हारे धैर्य-सी धूप,
तुम्हारी नम आँखों-सी नमी,
और भरोसे-सी चुप्पी।
प्रेम एक बीज है
जिसे बो दिया तो
वो तुम्हारे भीतर जड़ें फैला लेगा
ताकि जब तुम हिलो,
तो तुम्हें याद रहे
कहीं कोई तुम्हारे भीतर जी रहा है।
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5-काई और काँच / -भावना सक्सैना।
मेरी खिड़की का काँच
हर सुबह पीता है धूप,
करता है रोशन कमरे को
धूल सबसे पहले उसी पर चढ़ती है।
पिछली दीवार पर चिपकी है काई
न हिलती, न झुकती
हर मौसम में हरी दिखती है।
पानियों की सभा में
झीलें अक्सर
मौन रहती हैं,
पर पहाड़ उतारते हैं स्वयं को
झीलों की गहराई में।
कुछ दीप ऐसे होते हैं
जो रोशनी नहीं देते,
बस तेल की गंध से
अपनी उपस्थिति जताते हैं।
कुछ पाँव — चुपचाप मिट्टी ओढ़े
हर दिन एक नई राह गढ़ते हैं,
और कुछ पदचिह्न —
हर शाम वही रास्ता दुहराते हैं
जिसे सुबह किसी और ने चलकर छोड़ा था।
पेड़ों की छाया अक्सर
चर्चा में रहती है
शाखों से ज़्यादा,
लेकिन फल
हमेशा वहाँ गिरते हैं,
जहाँ जड़ें चुपचाप गहरी हुई हों।
कुछ काम धूप की तरह होते हैं —
न रोशनी माँगते हैं, न गवाह।
बस धीरे-धीरे
सारे मौसम बदल देते हैं।
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