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आरजू / रसूल हमज़ातफ़ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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मुझे मोजज़ों पे यक़ीं नहीं
मगर आरज़ू है कि जब कज़ा
मुझे बज़्मे-दहर से ले चले
तो फिर एक बार ये अज़न दे
कि लहद से लौट के आ सकूँ
तिरे दर पे आ के सदा करूँ
तुझे ग़म-गुसार की हो तलब तो तिरे हुज़ूर में जा रहूँ
ये न हो तो सूए-रहे-अदम में फिर एक बार रवाना हूँ
——
शब्दार्थ :
मोजज़ों = करामातों, चमत्कारों
कज़ा = मृत्यु, मौत
बज़्मे-दहर = दुनिया की महफिल
अज़न = इजाज़त
लहद = क़ब्र
सूए-रहे-अदम में = परलोक के रास्ते पर