चंद्रमा : स्मृतियों का श्वेत प्रहरी / पूनम चौधरी
जब रात्रि ओढ़ लेती है गहरी नीरवता,
और आकाश का विस्तार
मानो किसी अदृश्य ध्यान में स्थिर हो जाता है,
तब वह उभर आता है—
श्वेत, गंभीर, अपरिहार्य—
जैसे धरा ने अपनी सबसे उजली स्मृति
आकाश के मस्तक पर टाँक दी हो।
उसकी दीप्ति में कोई आग्रह नहीं,
सिर्फ़ वह स्थायी स्नेह
जो बिना छुए भी
थके मन को शीतल कर देता है।
वह सागर-मंथन से जन्मा रजत मणि है,
जिसे देवताओं ने
स्वर्ग के मुकुट से अलग कर
शिव की जटाओं में स्थिर कर दिया—
जहाँ निर्वासन,
दंड नहीं,
धैर्य और गरिमा की दीक्षा बन गया।
काल की निस्तब्ध धाराओं ने
उसकी आभा को क्षीण नहीं किया,
बल्कि और पारदर्शी बना दिया।
बचपन में वह लोरियों का ‘चंदा मामा’ था—
शैशव का सबसे मनमोहक खिलौना,
जिसे पाने की नहीं,
बस निहारने की चाह रहती थी।
वह प्रेम का रूपक है—
पूर्णिमा सा स्पष्ट,
अमावस सा धुंधला।
उसके घटने-बढ़ने में
जीवन का रहस्य छिपा है—
अधूरापन,
जो हर बार लौटकर
अपनी ही पूर्णता रचता है।
उसकी मौन प्रदक्षिणा
धरती को आलिंगन देती है—
बिना स्पर्श के भी,
और समुद्र के अंतर में
जगा देती है
लहरों का अदृश्य संगीत—
जैसे किसी बहुत दूर की स्मृति
अचानक भीतर गूंज उठे।
चंद्रमा—
पृथ्वी का मौन प्रहरी,
एक श्वेत स्मृति,
जिसमें सुरक्षित हैं—
हमारे प्रणय,
हमारी लोरियाँ,
हमारा शोक,
और वह प्रतीक्षा
जो काल से परे
निरंतर बनी रहती है।
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