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छेड़ो न मन के तार को / अमरकांत कुमर

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छेड़ो न मन के तार को
जीने के एक आधार को
जिसमें छिपा संगीत है
मेरे अनाविल प्यार को। छेड़ो न

क्या स्वप्न है मत पूछना,
क्या जागृति क्या मूर्च्छना,
किस बात की तकलीफ़ है
किस बात का है रूठना;
शब्दान्त है पीड़ा मेरी
एक अर्थ को, एक सार को। छेड़ो न

किस अर्थ जीवन भी तना
है अडिग ज्यों पत्थर बना ,
एक आग है, कुहरा घना
उस पार अमृत है सना ;
नापो न छोटे चरण से
आकाश के विस्तार को। छेड़ो न...

एक राग है, एक आग है
विराग है, एक फ़ाग है,
एक विश्वमोहन रूप के-
हाथों अमृत, एक झाग है ;
तुम्हें चाहिए क्या तय करो
सार को, निस्सार को। छेड़ो न...

शलभों-से या तो जल मरो
अलभों-से या तो छल करो,
शाद्वल बनो कि मरूस्थली
उबरो कि दलदल में गड़ो ;
है हाथ निर्णय सब तेरे
रख गुप्त, कह दो हज़ार को। छेड़ो न