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मैं सोते-सोते चलती हूँ / किश्वर नाहिद
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कहते हैं मैं सोते-सोते चलती हूँ
हँसता देख के लोगों को रो देती हूँ
ख़्वाहिश मेरा पीछा करती रहती है
मैं काँटों के हार पिरोती रहती हूँ
गर्मी की बेकार दोपहरों में अकसर
जलती हुई ज़मीन की धड़कन सुनती हूंँ
जब मेरा चलने को जी नहीं चाहता है
पाँव की दीवार बना के बैठती हूँ
खाल पुरानी हाथ से गिरती रहती है
बात पुरानी पेट में पालती रहती हूँ
देख के बाहर मंज़र नए बुलावे का
मैं खिड़की ईंटों से चुन देती हूँ
फ़ाख़्ता बन के उड़ने को जी चाहता है
पर आ जाएँ तो घर में छुप जाती हूँ
जागते में लकड़ी की तरह सुलगती हूँ
और सोते में चलती हवा से लड़ती हूँ
अपना नाम भी अब तो भूल गई 'नाहीद'
कोई पुकारे तो हैरत से तकती रहती हूँ