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क्यों बुलाते हो / अमरकांत कुमर

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क्यो बुलो हो मुझे रितुराज के वन से
तुम महकते हृदय में मलयाद्रि-चन्दन-से॥

इस सुवासित हृदय को कैसे मैं समझाऊँ
विरह की सम्भावना से क्यों मुकर जाऊँ
मिलन-बिछड़न धूप-छाँही खेल प्रकृति में
मन से बढ़कर आत्मा तक फ़िर फिसल आऊँ
तन तिरोहित हो मगर मन व्यग्र क्रन्दन से॥ क्यों...

मैं तुम्हारे बाण से हूँ बिद्ध पंछी-सा
तिलमिलाता मत्स्य हूँ सन्नद्ध बंसी-सा
है तुम्हें आनन्द तो लीला में मैं शामिल
मैं तो लीलाकमल हूँ, हूँ स्वप्नदंशी-सा
खेल लो मुझसे कि जितना समझ नन्दन-से॥ क्यों ...

फिर नहीं तुम प्यार के मनुहार से लड़ना
प्रेम की सत्प्रार्थना को व्यर्थ मत करना
प्रेम-मंदिर का दिया हूँ पूत रहने दो
वधिक-गृह की रोशनी से तुल्य मत कहना
और भी यह पूत होगा स्नेह-बंधन से॥ क्यों...