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आत्मिक विस्तार/ प्रताप नारायण सिंह
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प्रेम कोई अनुबंध नहीं है
और न ही कोई संबंध ही,
यह आत्मा का अपना विस्तार है;
जैसे दीपक का विस्तार उसकी ज्योति।
देहाभाव व्यक्ति को मिटाता नहीं,
अपितु शुद्ध कर देता है।
रूप आवरणहीन तत्व में परिवर्तित हो जाता है
और शब्द अनाहत नाद में।
वियोग व्यक्ति को खण्डित नहीं करता
अपितु स्मृति उसे अखंडित बना देती है
न होना ही अधिक निकट होने का कारण बन जाता है
अनुभूति अस्तित्व की नित्य धारा बनकर
सतत प्रवाहित होने लगती है।
