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सत्य की ऋतु/ प्रताप नारायण सिंह

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असत्य का बोझ,
आकाश पर छाए धुंध की तरह
धरती की साँसें रोक देता है।
पर क्षितिज से निकली सूर्य-किरण
एक बाण की तरह
अंधकार के हृदय को चीर कर
सत्य की आभा बिखेर देती है।

नदी की धारा
लोभ के बाँधों को तोड़कर
फिर से निर्मल बह निकलती है।
वन की सूखी डालियों पर
नवांकुर फूटते हैं,
मानो धैर्य ने
क्रोध की राख से
जीवन फिर रचा हो।

पर्वत अपनी निस्तब्धता में
अहंकार को ठुकराकर
विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं।
और हवा!
जो हर दिशा में बिखरती है,
शांत स्वर में कहती है,
“सत्य की सुगंध
दूर तक जाती है,
असत्य के धुएँ से कहीं आगे।”

दशहरा
केवल एक उत्सव नहीं,
यह ऋतु परिवर्तन है,
जहाँ भीतर की हरियाली
पाप की जड़ों को ढँककर
धर्म की नयी ऋतु रचती है।