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नश्वरता के पार/ प्रताप नारायण सिंह

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लोग कहते हैं -
"सब कुछ नश्वर है
मनुष्य, उसकी सत्ता और उसका वैभव
बस ऋतु भर ठहरता है।

डालियों पर लटकते पत्ते
शायद सोचते होंगे कि
वे अमर रहेंगे;
पर पतझड़ के आते ही
हरियाली की स्मृतियाँ भी
हवा हो जाती हैं।"

मैं देखता हूँ -
धरती पर गिरा प्रत्येक पत्ता
इतिहास का एक पन्ना है,
जो धूप में चमकते हुए
धीरे-धीरे राख बन जाता है।
उसकी सरसराहट
कभी लोरी जैसी लगती है,
तो कभी करुण पुकार जैसी।

मिट्टी जानती है,
झरना अंत नहीं होता।
हर टूटा पत्ता
अगले वसंत की जड़ों में
उर्वरक बनकर समा जाता है।

वही टुकड़े
नवांकुर की मुस्कान बनते हैं।
तो जो कहते हैं—
“सब कुछ एक दिन नष्ट हो जाता है"
उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि
नष्ट कुछ भी नहीं होता,
हर पतन के भीतर
एक नए उदय का बीज छिपा रहता है।