भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल्पित प्राप्य की महत्वाकांक्षा/ प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:05, 19 अक्टूबर 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक कल्पित प्राप्य की
भ्रमित, उत्कट महत्वाकांक्षा
कितनी ही सुन्दर, सुखद प्राप्तियों को
महत्वहीन कर
जीवन को बौना बना देती है!

प्रकृति की
कोई भी किरण इतनी आलोकित नहीं
कोई भी गंध इतनी सुवासित नहीं
कोई भी सौंदर्य इतना मोहक नहीं
जो कल्पनाओं से जन्मे
मादकता को क्षीण कर सके।

मनुष्य को प्राप्त
यह विलक्षण क्षमता
वरदान और अभिशाप बन
सतत
फिराती है जीवन को
सृजन और विध्वंस के दिन-रात में।
दिन का उजाला जो कुछ भी जन्मता है
रात का अँधेरा लील जाता है,
अतः उसे अप्रियकर होना ही था।

किन्तु
संभव नहीं है
रात को रोक पाना
क्योंकि यह भी उसी स्रोत की उपज है
जिससे दिन जन्मा है।
साथ में यह भी सच है कि
हर साँझ की आँखों में
उजाले का स्वप्न पलता है,
अतः दीपक को अस्तित्व में आना ही था।

रोशनी करके
अँधेरे को दूर रख सकते हैं-
-यह सत्य अपरिचित तो नहीं,
न ही कल्पित है।