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सीमाओं से परे/ प्रताप नारायण सिंह

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हर आत्मा अपने भीतर
एक मौन इतिहास रखती है,
जिसे कोई पढ़ नहीं पाता,
यहाँ तक कि वह स्वयं भी नहीं।

हम आत्मा को भी
उसी तरह बाँधना चाहते हैं
जैसे शरीर को बाँधते हैं -
नाम से, जाति से, धर्म से, सीमा से,
यहाँ तक कि भगवान की परिभाषा से भी।

पर आत्मा
बिलकुल स्वतंत्र होती है,
वह जल की तरह
हर पात्र में अपना आकार बदल लेती है,
पर सार यथावत रखती है--
निर्मल, निरंतर, निश्छल।

वह हमें पुकारती है--
हर बार जब हम झूठ बोलते हैं,
हर बार जब हम किसी को ठुकराते हैं,
हर बार जब हम अपने भीतर की
रोशनी को दबा देते हैं
“अनुकूल” दिखने की कोशिश में।

आत्मा जानती है
सौंदर्य कोई आकार नहीं,
यह तो वह शांति है
जो भीतर के ज्वार-भाटा को भी
आँखें बंद कर स्वीकार कर लेती है।

हर आत्मा एक दर्पण है,
जो समय से परे झाँकता है।
जिसमें हम बार-बार जन्म लेते हैं,
बार-बार मिटते हैं,
और स्वयं को पहचानना सीखते हैं।