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स्वप्न के उस पार/ प्रताप नारायण सिंह

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रात की तहों में
एक अधखुला दरवाजा था
जहाँ तुम खड़े थे,
शायद स्मृति और विस्मृति के बीच की
किसी रोशनी में।

न कोई नाराजगी,
न कोई उलाहना,
बस थकान का एक हल्का धुआँ
तुम्हारे चेहरे से उठ रहा था।

मैंने तुम्हें देखा
जैसे कोई गुम हुई नदी
अचानक किसी मोड़ पर
फिर दिखाई दे जाए।

तुम मुस्कराई नहीं,
पर आँखों में एक आश्वासन था
कि जाने के बाद भी
लौटने की कुछ उम्मीद बची रहती है।

हमारे चारों ओर
अधूरी चीजें बिखरी हुयी थीं -
बेतरतीब किताबों के ढेर,
कुछ अनलिखे पत्र,
और एक टूटा हुआ प्याला।

तुम्हारा चेहरा
अब स्मृति नहीं, एक पूरा दृश्य था-
धीरे-धीरे खुलती भोर जैसा,
या किसी पुराने गीत की
पहली पंक्ति जैसा।

सपना जब टूटा,
तो मैं कुछ पल
तुम्हारे ताप में ठहरा रहा।
फिर समझा
कि यह लौटना नहीं था,
बस एक झिलमिल
जहाँ प्रेम ने
विरह से थोड़ी देर की छुट्टी माँगी थी।