मेरी उमर तुम्हें लग जाती / शंकरलाल द्विवेदी
मेरी उमर तुम्हें लग जाती *
(1)
यों अनाथ कर हमें अचानक नेहरू! तुम्हें नहीं जाना था।
यों ही बिना कहे, बिन बूझे, पापिन मौत नहीं आना था।।
चिर्-वियोग की सज़ा दे गए, क्या क़सूर बन गया हमारा?
अभी-अभी जो चमक रहा था, गर्दिश में है वही सितारा।।
(2)
तुम तो यही कहा करते थे- ‘मेरी उमर बहुत लम्बी है’।
पता न था बेरहम समय की नेक नज़र इतनी अंधी है।।
किसके असमय चिर्-प्रयाण से सपने पागल हो जाएँगे।
सोचा नहीं विकास बाल के घुटने घायल हो जाएँगे।।
(3)
जली चिता, छा गया धूम, मिस्- कटु विषाद का विषधर ऐसे।
हिलकी भर-भर भारत रोया, राहु-ग्रस्त शशधर हो जैसे।।
ब्रह्मपुत्र, कावेरी, कृष्णा, क्या चिनाब सब खोईं-खोईं।
शिला-खंड पर पटक-पटक शिर बेसुध गंगा-यमुना रोईं।।
(4)
शैल - श्रंखलाएँ क्या रोईं, सारा गगन उदास हो गया।
सागर चीख़ा, आज अवनि का दुर्लभ-प्रियतम रत्न खो गया।।
निशा हो गई, झिलमिल तारे खिले नहीं नीलाभ-गगन पर।
सब शोकाकुल सुमन बन गए- दर्शनार्थ निस्तब्ध अवनि पर।।
(5)
अनावृष्ट जलयुता घटा-सी तपी उदासी पिघल रही है।
राजघाट पर डरी हुई-सी पीत चाँदनी उतर रही है।।
भिगो रही है बुझी राख को, चूम रही है चरण तुम्हारे।
और पास ही पड़ा एक शिशु- ‘चाचा नेहरू! जगो’ पुकारे।।
(6)
पर तुम हो कि चले जाते हो, एक बार तो मुड़ कर देखो।
शायद कह दे तभी कि- ‘तुमसों मोकों अब कछु नहीं परेखौ’।।
तरल तिमिर से स्नात् दिशाएँ, तुम्हीं कहो किस ओर निहारूँ?
कल कोई आँधी आई तो- किस हिमगिरि को, कहो पुकारूँ?
(7)
अँसुवाई अँखियों से राखी ‘विजयलक्ष्मी’ जब देखेगी।
बाहर आता हुआ कलेजा, बोलो भी- कैसे रोकेगी?
बरजेगा विवेक- ‘इतना-सा भी दुःख सहा नहीं जाता है?’
फूट-फूट कर भाव कहेंगे- ‘हमसे रहा नहीं जाता है’।।
(8)
असमय ही गुलाब बग़िया के मुरझाए से पड़े हुए हैं।
अस्थि-कलश पर अमलतास भी शोक-गीत से खड़े हुए हैं।।
फटी नहीं यमदूत तुम्हारी लेकिन पाहन जैसी छाती।
आँधी का उर नहीं पसीजा, गुज़र गई दीपक की बाती।।
(9)
शांति - दूत! संगम धर्मों के! जननायक! सोनरे सवेरे!
कल तक तू महका गुलाब-सा, आज फूल भी बचे न तेरे।।
बिछा दिया गंगा-मैया ने लहरों वाला दिव्य बिछौना।
सो जा, सपनों में दुहराना दिक्-दिगन्त का कोना-कोना।।
(10)
शायद दारुण दुःख सहने के लिए निठुर ने मुझको जन्मा।
था कब तेरा सृजन अधूरा, रह जाता मैं अगर अजन्मा।।
क्या घट जाता, किस हिसाब में-‘मेरी उमर तुम्हें लग जाती’?
कोई जन्म सफल हो जाता, आन मृत्यु की भी रह जाती।।
-8 जून, 1964
• ‘सैनिक’ में प्रकाशित एवं अनेक संग्रहों में संग्रहीत
