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चाहत-1 / साधना सिन्हा
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झुकी देह–यष्टिका
बूढ़ा हुआ तन
चाहत
बालक सी
फिर भी
मुस्काती
सुबह की कोमल गरम
किरण-सी
छरहरी
पेड़ों के झुरमुट से
झाँकती
आकर
मुझ में बस जाती
चाहत
तुम क्यों न बूढ़ी हुईं ?
आकर मेरे आंगन में
शिशु बना,
खिलौना थमा
मुझ से
खिलवाड़ करती हो !