भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अर्घ्यदान / साधना सिन्हा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:05, 3 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साधना सिन्हा |संग्रह=बिम्बहीन व्यथा / साधना सिन...)
सुबह, आज
अर्घ्यदान दिया
अपने मन के सूरज को !
किरणें उजली
पानी की बूंदों में
बन सतरंगी
बरसीं तन–मन पर
बन मेरी संगी
अस्ताचल में डूबा सूरज
फिर देखा
लौटा मन आंगन में
चहके पंछी
लहराए पौधे
मगन, हिलोर हिया
आंगन में जब
मन के सूरज को
मैंने
अर्घ्यदान दिया ।
सब ही कहते हैं
पर मैंने देखा
जो डूबा, फिर लौटा
मेरा मन सोया
लो फिर जागा
पंछी, पौधे
सतरंगी किरणें
सबने
मेरे मन की
अमित आभा को
मेरे संग
अर्घ्यदान दिया ।