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छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो / ज्ञान प्रकाश विवेक

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छटपटाता हुआ धरती पे पड़ा हूँ लोगो
अपनी औक़ात से कुछ ऊँचा उड़ा हूँ लोगो

कोई ग़फ़लत से मुझे ऊँचा समझ ले शायद
अजनबी शहर में दो दिन से खड़ा हूँ लोगो

मुझको ये ज़ीस्त भी लगती है अँगूठी जैसी
दर्द के नग की तरह इसमें जड़ा हूँ लोगो

आश्वासन का कभी इसमें भरा था पानी
अब तो मैं ख़ाली बहानों का घड़ा हूँ लोगो

कल जहाँ लाश जलाई गई नैतिकता की
उस समाधि पे दीया ले के खड़ा हूँ लोगो.