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अकेला मैं गिरूंगा / विष्णुचन्द्र शर्मा
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मैं अकेला पेड़
जब जंगल में
गिरूंगा।
धूप मुझ को
अपनी खुली छाती में
सुलाएगी।
पर्वत सुबह देखेगा...
अनमने जंगल को।
पेड़ की हरी चादर
मुझ पर
गिराएगी हवा।
गिलहरी
जब तक
उछलेगी मुझ पर।
धूप
फिर सारे दिन
बढ़ई को,
किसान को,
बच्चों को,
औरतों को
कहानी सुनाएगी
गिरे हुए
पेड़ की।