भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं और संगीत / विष्णुचन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:01, 9 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विष्णुचन्द्र शर्मा |संग्रह= }} <Poem> मैं न संगीत हू...)
मैं न संगीत हूँ
न हूँ नदी।
फिर ध्वनियों की इस
सभ्यता में
मैं क्यों
सूर्य में,
और सूर्य
नदी में रूपान्तरित हो रहा है!
संगीत की पूरी त्वरा में।
मैं नाच रहा हूँ।
लय की थाप पड़ रही है।
नृत्य के घेरे में
पति का हाथ थामे
बहू नदी बन गई है!
उल्लास के घेरे में
मैं संगीत की धमक हूँ।
बताना मेरे
दौर के कलाकारो!
लहरों के रंगमंच में
कहाँ है सूर्य!
कहाँ है नदी!
ध्वनियाँ
सभ्यता में
किसे रूपान्तरित कर रही हैं!
मैं न सूर्य हूँ।
न नदी।
नई पीढ़ी संगीत को
अभिनय का कौन
पाठ सिखा रही है।