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अगली भाषाओं की तलाश में / संजय चतुर्वेदी

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क्या पता लोहे में जीवन हो
पत्थर हों वनस्पति
क्या पता कल हम समझ सकें जल और वायु का व्यवहार
कण-कण से आती बिजली की आवाज़
हो सके बातचीत पत्थरों और पेड़ों से
बढ़ जाए इतनी रोशनी
एक शब्द का हो एक ही अर्थ
दोहरा होना रह जाए पिछड़ेपन की निशानी
क्या पता कविता न रह जाए आज जैसी
आज जहाँ है, वहाँ बस जाएँ बस्तियाँ
और वह निकल जाए अगली भाषाओं की तलाश में