भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभिभूति / राजकुमार कुंभज

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:11, 11 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकुमार कुंभज |संग्रह= }} <Poem> स्कूली दिनों में स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


स्कूली दिनों में स्कूल नहीं गया
दफ़्तरी दिनों में कभी भी गया नहीं दफ़्तर
घंटाघर के पीछे आँखमिचौली करते हुए खेलता रहा कंचे
या कि फिर खुले मैदान में उड़ाता रहा पतंग
और लड़ाता रहा पेंच-दर-पेंच
निठल्ली हवाओं में खो जाने वाला वह निठल्ला वक़्त
सचमुच करता है कितना अभिभूत?