भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महफ़िल में / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:57, 14 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह= }} <Poem> चुप रहो इस म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चुप रहो इस महफ़िल में
रंडियों और भड़ुओं की उछल-कूद देखते रहो
हँसो
हँस-हँस कर दर्द टालते रहो
लोग तुम में दिलचस्पी ले रहे हैं
क्योंकि तुम नाटक में शरीक हो
ख़बरदार, कुछ बोलने की ज़ुर्रत न करना
ये सब मिलकर तुम्हारा मुँह नोच लेंगे
ढकेल देंगे नीचे बजबजाती नालियों में
इनमें से कोई अभी सुनने को तैयार नहीं।