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मैं आजकल अक्सर
तेरे बारे में सोचने लगा हूँ
जैसे कोई पानियों में पानी होकर सोचता है।
तुझे गुनगुनाने लगा हूँ इस तरह
जैसे प्रात:काल के ‘सबद’ का अलाप
तेरी तलाश का सफ़र
किसी अनहद राग का मार्ग
तेरी याद, तेरा मिलन
सरगम के सारे सुर
अधूरे सिलसिले
कुछ संभव, कुछ असंभव
अतृप्त मन की कथा
अथाह पानियों में घिरा हुआ भी
मेरे लिबास की तपिश वैसी ही
तू बर्फ़ की तरह मेरे करीब रह
मेरी रेतीली प्रभात
मेरे भावों के मृगों का रंग तो बदले
कि बना रहे जीने का सबब।
मैं लम्हा-लम्हा तेरा
मेरे अन्दर बैठे पहाड़ के लिए
तू बारिश बन
मैं बूंद-बूंद हो जाऊँ
तेरे अन्दर बह रही नदी के संग
हो जाऊँ मैं भी नदी
मेरी नज़र की सुरमई शाम पर
इस अजीब मरहले को
स्मृतियों के बोझ से मुक्त कर दे
तुझे संबोधित होते हुए भी मैं चुप हूँ
मेरे बनवास को और लंबा न कर...
मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव