भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस रोज़ भी / अचल वाजपेयी

Kavita Kosh से
Ysjabp (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:47, 19 दिसम्बर 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस रोज़ भी रोज़ की तरह

लोग वह मिट्टी खोदते रहे

जो प्रकृति से वंध्या थी

उस आकाश की गरिमा पर

प्रार्थनाएँ गाते रहे

जो जन्मजात बहरा था

उन लोगों को सौपॅ दी यात्राएँ

जो स्वयं बैसाखियों के आदी थे

उन स्वरों को छेड़ा

जो सदियों से मात्र संवादी थे

पथरीले द्वारों पर

दस्तकों का होना भर था

वह न होने का प्रारंभ था