Last modified on 28 दिसम्बर 2008, at 21:23

इक्कीस वर्ष होते होते / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:23, 28 दिसम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हमें अपने घर से टूट जाना चाहिए
टहनी पर खिले गुलाब की तरह इच्छित होकर
किसी पके फल की तरह स्वतः
या चिड़िया के बच्चों की तरह
हमें अपने घोंसलों से उड़ जाना चाहिए

जब हमारे माँ-बाप यह देखने लगे कि
हमारे बाजुओं की पेशियाँ फूल आईं हैं
और हमारी बहनों के उभार खाते दूध
तो हमारी बहनों को पड़ोसी से प्यार करना चाहिए
या चले जाना चाहिए दोपहरी भर किसी आफ़िस में

हमारे थके-मांदे बुढ़ाते बाप जिनकी नसें धनुष की प्रत्यंचा-सी टूट गई हैं
‌और मस्तक पर की सफ़ेद बर्फ़ उग आई हो
न सम्हाल सकें अपना वासनातुर मन और पुराने विचारों का जाल न समेंट पाएँ
तो हमें इक्कीस वर्ष होते-होते अपना घर छोड़ देना चाहिए