भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोहरे में / प्रयाग शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:24, 1 जनवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोहरे को
भेदकर
लटका है चंद्रमा
किसी तरह ।

आ-जा रहे हैं लोग
जैसे हो छायाएँ--

झूल रहा फटा
हुआ पोस्टर--
(इबारत को पढ़े कौन ?)

चुप गीली पत्तियाँ ।

बसें सरकती हुईं ।
पटरी पर ठंड में
मूंगफली
बेच रहा
लड़का ।

ठिठुरन--
ठिठुरन एक ।
कोहरे में--
शहर एक और ।