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ऊहापोह / जयप्रकाश मानस

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कवि: जयप्रकाश मानस

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उफनती नदी की शक्ल में

मसकता है लावा

और समतल पहाड़ियाँ उग आती हैं

गूँजता है बीहड़ों से

आदिम राग

गफा और भी ख़ूँखार हो उठता है

पौधे उतार फेंकना चाहते हैं हरीतिमा

राहु को घोषित कर देता है चैम्पियन

बुझता हुआ चन्द्रमा

लकड़हारा बन जाता है कालिदास

खाई कहाँ नज़र आती है खाई

आकाश जा बैठता है रसातल की जगह

उलटी दिशा में ज़ोरदार घूमने गलती है पृथ्वी

तेज़-तेज़ दौड़ने के बावजूद

रहते हैं वहीं के वहीं

बैठे-बैठे औंधे मुँह हो जाते हैं

जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से

विवेक गम हो जाता है

जैसे अनाड़ी के हाथ से

गिर गया हो कोई सिक्का अथाह नीलिमा में


ऐसे वक़्त

सब कुछ होने के बावजूद कुछ नहीं होता

कुछ नहीं होने के बाद भी हो जाता है बहुत कुछ

ऊहापोह से बढ़कर ख़तरा

और क्या हो सकता है