भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ मुक्तक (ज़िन्दगी पर) / रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
Ramadwivedi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:21, 5 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKRachna |रचनाकार=रमा द्विवेदी }} पद को पाने के लिए<br> साज़िश हुई है ज़िन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद को पाने के लिए
साज़िश हुई है ज़िन्दगी ।
किस तरह सिक्का जमे,
दूभर हुई है ज़िन्दगी ॥

शकुनी की चालाकियां
आज भी तो कम नहीं ।
भीष्म की चतुराइयों में भी,
सिर झुकाती ज़िन्दगी ॥

आंख से सब देखते हैं,
पर कुछ नही कह पाते हैं ।
सच्चाई का दांव भी,
हार जाती ज़िन्दगी ॥

दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएं
आज भी हर घर में हैं ।
कर्ण की अहंकारिता
नष्ट करती ज़िन्दगी ॥

दु:शासन आज भी तो
द्रोपदी का चीर हैं हर रहे ।
इक्कीसवीं-सदी में भी
क्यों नग्न होती ज़िन्दगी ॥

द्रोपदी के अपमान का
प्रतिशोध है यह ज़िन्दगी ।
युद्ध की संभावना का
दंश है यह ज़िन्दगी ॥

धृतराष्ट्र की धृष्टता की ,
मोहताज़ है यह ज़िन्दगी ।
जीत में भी हार का
अहसास सी है ज़िन्दगी ॥

भारत की आजादी ने
नारियों को क्या दिया ?
भ्रूण-हत्या,वधु-हत्या,नग्न तन-मन
यही सब देती रही है ज़िन्दगी ॥

आधुनिक सभ्य समाज में भी,
नारी इन्सान न बन सकी,
मां,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन ,
हाँ बस पिस रही है ज़िन्दगी ॥

कौन सी यह सभ्यता है,
कुछ समझ आता नहीं।
खुश यहाँ कोइ नहीं,

बस मिट रही है ज़िन्दगी ॥