जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / गजानन माधव मुक्तिबोध
जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह
- बौखला उठे थे दुर्निवार,
तब एक समंदर के भीतर
- रवि की उद्भासित छवियों का
- गहरा निखार
स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता
- झलमला उठा;
मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर
- सब एक साथ
- बौखला उठे
- तमतमा उठे !!
- बौखला उठे
संघर्ष विचारों का लोहू
- पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा
- में उठा गिरा,
मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त
- वेदना यथार्थों की जागी !!
मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश
- सुख-दुख के चरणों की
- मन ही मन
- यों की 'पालागी' —
- मन ही मन
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
आंसू का कांटा फंसा और
मन में यह आसमान छाया,
जिस में जन-जन के घर-आंगन
- का सूरज भासमान छाया
झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,
- चिड़िया डोली,
फर-फर आंचल तुमको निहार
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
जिनसे गूंजा घर-आंगन
खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
मैं जिस दुनिया में आज बसा,
जन-संघर्षों की राहों पर
- ज्वालाओं से
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
- घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
दिल के आंसू के फव्वारे
- लेकिन यह मेरे छन्द
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
- ऐसी पावन धूल हुए —
बहना के हिय की तुलसी पर
घन छाया कर
- मंजरी हुए,
भाई के दिल में फूल हुए ।
अपने समुंदरों के विभोर
मस्ती के शब्दों में गम्भीर
तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
जन-संघर्षों की राहों पर
आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
- थी ताकत हिय में सरसायी ।
घर-घर के सजल अंधेरे से
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
जीवन की नसीहतें पायीं ।
जन-संघर्षों की राहों पर
- गम्भीर घटाओं ने
- युग जीवन सरसाया ।
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
ज़िंदगी नशे सी छायी है
नव-वधुका बन
- यह बुद्धिमती
ऐसी तेरे घर आयी है ।
रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
- सुगंध फैला
- जिन लोगों ने
अपने अंतर में घिरे हुए
गहरी ममता के अगुरू-धूम
- के बादल सी
मुझको अथाह मस्ती प्रदान की
- वह हुलसी, वह अकुलायी
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
- युगों-युगों को तारा है,
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
- पार लगायी है,
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
- हुलसे मन —
- से किये निछावर जा सकते
- सौ-सौ जीवन,
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
उनकी बाहों को अपने उर पर
- धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
उनकी ताकत
पायी मैंने अपने भीतर ।
कल्याणमयी करुणाओं के
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैसे
उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
आत्मा के कोमल पंख फँसे
मेरे हिय में,
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
- उनके ही तो ।
यादें उनकी
कैसी-कैसी बातें लेकर,
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
दुःखान्त साँझ
दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
यादें उनकी
मेरे मन में
ऐसी घुमड़ी
ऐसी घुमड़ी
मानो कि गीत के
- किसी विलम्बित सुर में —
उनके घर आने की
- बेर-अबेर खिली,
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
पर, लहराती अलकों में बिंध,
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
जनपथ पर मरे शहीदों के
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
दुबली चम्पा
- जन संघर्षों में
- गदरायी,
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
जीवन संघर्षों में घुमड़े
- उमड़े चक्की के गीतों में
कल्याणमयी करुणाओं के
हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
जिस सुर को सुन
कूएँ की सजल मुँडेर हिली
प्रातः कालीन हवाओं में ।
- सूरज का लाल-लाल चेहरा
डोला धरती की बाहों में,
आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
- यों दावाग्नि लगी
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
सिर जलता है, कन्धे जलते ।
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
- रे नौजवान,
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
भौहों पर मेघों-जैसा
- विद्युत भार
- विचारों का लेकर
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
चलते जन-जन के साथ
वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
अगजाजी खोहों और खदानों के
तल में
- ज्यों रत्न-द्वीप जलते
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
जीवन के सत्य-दीप पलते !!
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
मानो जीवन सरिता
- जलते कूलोंवाली,
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
बहती है तरुणों आत्मा की प्रतिभाशाली
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
ये भारतीय नूतन झरने
अंगारों की धाराओं से
विक्षोभों के उद्वेगों में
संघर्षों के उत्साहों में
- जाने क्या-क्या सहते रहते ।
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
- धरती की प्रस्तर-माला
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
जन-जन के पुत्रों के हिय में
- मचले हिन्दुस्तानी झरने
- मानव युग के ।
इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
लहरों में लहराती धरती
- की बाहों ने
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
इन झरनों में
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
- तुम भी तो हो,
मानव-भविष्य का आसमान —
- तुममें भी है,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
- वे अपनी लाल बुनावट में
- जिन कुसुमों की आकृति बुनने
- के लिए विकल हो उठती हैं —
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
वह तुम ही हो.
इस रिश्ते से, इस नाते से
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
पत्थर, जंगल
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन किरनों का ताना-बाना
- उस रश्मि-रेशमी
- क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
जन-जन के संघर्षों में विकसित
- परिणत होते नूतन मन का ।
- वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
अनुभव-गरिमाओं की आभा
वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा
सौ सहानुभूतियों की गरमी,
प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी
ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल
नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है,
मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !!
उस स्वर्ण-सरोवर का जल
- चमक रहा देखो
उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।
ताना-बाना
- मानव दिगंत किरनों का
- मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना
उस दिन, उस क्षण
नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा
- मेरे आंगन,
प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो
- मधुशील चन्द्र
- था प्रस्तुत यों
मेरे सम्मुख आया मानो
मेरा ही मन ।
वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण
इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में —
जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने,
तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन
नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे
मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं,
मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में
है फैल चली मेरी दुनिया की
- या कि तुम्हारी ही झाँईं ।
तुम क्या जानो मुझको कितना
- अभिमान हुआ
सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर,
जब भव्य तुम्हारा संवेदन
सबके सम्मुख रख सका, तभी
अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा
- झलमला उठी !!
ईमानदार संस्कार-मयी
सन्तुलित नयी गहरी चेतना
- अभय होकर अपने
वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची
ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से
वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से
मेरे सहचर हैं ढहा रहे
वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता ।
उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा
जब मेरे भीतर मंडरायी
मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।
कागज़ की भूरी छाती पर
- नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ
छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान
वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय
- कमल खिला
- रवि का ।
शब्दों-शब्दों में वाक्यों में
मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला
- उसकी विश्वाकुल एक किरन
- तुम भी तो हो,
धरती के जी को अकुलानेवाली
- छवि-मधुरा कविता की
- प्यारी-प्यारी सी एक कहन
- तुम भी तो हो,
वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में
उगे आक के फूलों के नीले तारे,
मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी
- चम्पा के साथ
- उगे प्यारे,
मानो जहरीले अनुभव में
मानव-भावों के अमृतमय
- शत-प्रतिभाओं के अंगारे,
उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा
- की एक किरन
- तुम भी तो हो !!
अपने संघर्षों के कडुए
- अनुभव की
- छाती के भीतर
क्रमशः ...