भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिया / शरद बिलौरे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 7 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद बिलौरे |संग्रह=तय तो यही हुआ था / शरद बिलौरे }...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरिया कल रात तेरा खेत
गाँव में घूम रहा था
बहुत भूखा था।

हरिया कल रात तेरे बैल
काँजी-हाउस में सड़ा भूसा खा रहे थे
बहुत भूखे थे

हरिया कल रात तेरा लड़का
मुकद्दम के लिए लड़कियाँ पटा रहा था
बहुत भूखा था।

हरिया कल रात
तेरे आँगन लाँघते ही
लाला जोर-जोर से हँस रहा था
बहुत भूखा था।

हरिया कल रात से
दिखाई नहीं दी तेरी जवान बेटी।

हरिया
आज रात के लिए
तेरे पास क्या बचा है।

हरिया
क्या आज तुझे भूख नहीं
तू कुछ बोलता क्यों नहीं
हरिया?