भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात होते-प्रात होते / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Eklavya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 8 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: प्रात होते – सबल पंखों की मीठी एक चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रात होते –

सबल पंखों की मीठी एक चोट से

अनुगता मुझ को बना कर बावली को –

जान कर मैं अनुगता हूँ –

उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी

श्रुता (?) हूँ –

उड़ गया वह पंछी बावला

पंछी सुनहला

कर प्रहर्षित देह की रोमावली को :

प्रात होते

वही जो

थके पंखों को समेटे –

आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –

चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे

नम रही ग्रीवा उठाये –

सिहरता-सा, काँपता-सा,

नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,

निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के

निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के

आ गया था

आ गया था

रात होते ?