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साध / प्रेमरंजन अनिमेष

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देखूँ
और उसी क्षण लिख सकूँ
जैसे अंकित कर लेता है दिमाग़

देखकर फिर लिखने झुकूँगा
उतनी देर में कुछ
छूट जायेगा

चाहता हूँ बहुत दिनों से
ज़िन्दगी
लखता रहूँ तुम्हें
और लिखता रहूँ
बिना ताके काग़ज़ क़लम की ओर

महसूस करते वक़्त भी
मुक्त हों उँगलियाँ
चुपचाप
निरपेक्ष
दर्ज़ कर लें
साथ-साथ
साफ़-साफ़
साध ऎसी
कि अँधेरे में भी
आँक लूँ
और टेढ़ी न हो पंक्तियाँ
शब्द से न कटे शब्द !