विश्व छवि बुद्ध् / श्रीनिवास श्रीकांत
{{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
वज्रयानी बौद्घ मठ था वह
बुद्घ जहाँ लगते थे रुद्र
तांत्रिक गचकारियों से सुसज्जित
अवलोकितेश्वर
अपने प्रखर परिकर देवताओं के साथ
उच्च आसन पर विराजमान
सहस्र मंगोल अवधारणाएँ
सहस्र कायान्तर रूप
चक्रपाणि वे
ब्रह्माण्ड को थे
विराट फिरकी की तरह घुमाते
आद्य आकाश के देवपितर
अपने से अलग
एक महत्ता चित्रकार
बेशक ऐसे तो वे देशान्तर
प्रतीतियों से बने
दिक्काल से छन-छन कर ही
निर्मित होती है
एक विश्व छवि
भारत के बुद्घ तो थे
काश्यप राजकुमार सिद्घार्थ
राज त्याग अपनाया जिन्होंने
मुक्ति पथ
बोधिसत्व थे वे
एक जन्मजात आध्यात्मिक प्रतिभा
ज्ञान और भान के बीच
एक सुदृढ़ सेतु
दु:ख से निर्वाण तक का
करुण रूप
दक्षिण-पूर्व, जापान, चीन
और फिर मध्य एशिया
बाँस कुटीरों में
वह बने
जेन सन्यासियों के
काव्य बिम्ब
पद्मसूत्र का छना हुआ ज्ञान
चीन में श्रमणों का स्थापत्य
तिब्बत में मणिपदम
बामयान में दीर्घकाय ईश्वर
वह थे इतिहास के
द्वापरोत्तर विष्णु
सहस्राक्ष
सहस्रपाद
ब्रह्म सरोवर में खिले
सहस्रदल कमल पर
पीठासीन।
सोनमर्ग की सुतवाँ ढलानें
और हरी
मखमली दूब
और वे हवाएँ
जो बचपन में खेलीं
उसकी जोया
उसके अली के साथ
वह बरसों से घर नहीं गया
न मिल पाया
अपनी अन्धी दादी को
जो सुनाती थी
कश्मीरी में कहानियाँ
अल्लाताला से माँगती दुआ
कि अहमद को रखना महफू$ज
वह जिये
अपने पुश्तैनी फिकरोफन में
एक-से-एक गालीचे बुने
जो हों असली कश्मीरी
फुलकारी में
इरानियों से भी बेहतर
पर, सद अफसोस!
जाने कब क्या चूक हुई
इस खुदाई मन्सूबे में
कि वह चला गया सरहद पार
उसके हाथ थे
पीछे की ओर बँधे
और आँखों पर भी थी पट्टिïयाँ
घेर कर ले गये थे उसे
आदमजाद भेडिय़े सरहद पार
अपने जहादी लश्कर में
पीछे छूट गया था
माँ का स्नेहिल चेहरा
उसकी मानमनुहार
मांस के पकवान
और मौसम में महकता
उसका आँगन
तारों की छाँव में गाता-नाचता
एक खुशनुमा कश्मीरी परिवार
घर पर तारीं है अब
अनिर्वच आतंक
रात को जब
घाटी में फैलता है
डरावना अँधेरा
बेटे का ऐसा लगा सदमा
कि टूट गयी
अब्बा रहमतुल्ला की कमर
अहमद अब देख रहा
अपनी आत्मा के
गाढ़े एकान्त में
वादी में सूरज का डूबना
दूर दूर चमकतीं
बर्फ की खामोश चोटियाँ
इन सब को तोल रहा वह
मन ही मन
नेकी और बदी के तराजू में
दर्ज करता
अपनी जाति की हार
जेहन के फडफ़ड़ाते भोज पत्र पर
जिसे अब वह
नहीं कर पायेगा अनलिखा।