भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भेड़ / तुलसी रमण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:26, 14 जनवरी 2009 का अवतरण ("भेड़ / तुलसी रमण" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुज़ुर्गों का कहना है
जब भेड़ मूंडनी हो
उससे पूछा नहीं जाता

दो चार हरी पत्तियां
रोटी का एक ग्रास
या चंद दाने दिखाकर
एक सछल, शरारती पुचकार के साथ,
करीब बुला लिया जाता है उसे

और वह निरीह
सहज चली आती है
बस

सुविधाजनक ढंग से
कैंची चलाकर
ऊन उतार लो उसकी

और फिर से
एक अर्से के लिये
ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में
नंगा कर छोड़ दो

जहाँ रहते हैं
असंख्य भेड़िये और
भेड़िये के बच्चे
उसके ख़ून की ताक में

सिंहासन सजते हैं
भेड़ की ऊन से
राजतिलक भी होता है
भेड़ के खून से
पर निरीह भेड़ ठगी-सी
बस ऊन होती है
या ख़ून।