भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँस पिण्ड / तुलसी रमण
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:35, 15 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसी रमण |संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण }} <poem> ढल...)
ढलते सूरज के साथ
जीवन की उस मादक माँसल
दोपहरी की
यादों में खोयी
जिसे आधा दर्जन शिशुओं में बाँटकर
बची-बचाई गंगी
देहरी पर खड़ी
झरे-झराये अपने साथी का
करती है इन्तजार
वह बखूबी जानती है
दिनभर का थका-मांदा गोरखू
मक्की की चार रोटियां चबाकर
दूसरी बगल में लेटे
सबसे छोटे जीतू से
झगड़ेगा रात-भर
चीर-चीर लोई के नीचे
उसकी छाती के सूखे पड़े
मांस पिण्डों से खेलते हुए
गोरखू और जीतू की दो पीढ़ियाँ
मादक माँसलता
दूध की तलाश में
नोंचती जाती हैं
पत्नी
माँ के मांस पिण्डों को
भूल जाती है
सारी विसंगतियाँ
अभावजन्य विपदा
विघटन-प्रसूत क्लेश
और दो भूखी पीढ़ियों में गंगी
बँटती जाती है निरंतर
माँस पिण्डों के साथ