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पिता जी ( शब्दांजलि-२) / नवनीत शर्मा

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वक्‍त की चोट से हिले हैं कब्ज़े


खिड़कियों के

खुली हवा का चाव पूरा हो गया

घर मगर कितना अधूरा हो गया

अब छत नहीं मिलती

शब्‍द जहां उतार देते थे रोगन

भाव भी

वह बिस्‍तर खाली है।