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पिता जी ( शब्दांजलि-३) / नवनीत शर्मा

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ख़ूब लड़ी वह जेब

सरसों के तेल की धार से

कोयले की बोरी ले कर

लड़ते रहे वे हाथ

जाड़ों से ।

पिता सोए

बड़के की फीस के हिज्‍जे गुनते

मंझले की मंजिल पर

नींद में बुड़बुड़ाते

और सुबह से भी पहले जाग उठते

छोटा अभी बहुत ही छोटा है

बड़ा होगा न जाने कब.