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फिर दिन बड़े हो गए / ओमप्रकाश सारस्वत

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फिर
दिन बड़े हो गए
दर्द के बीज
जो सरसों की स्मृतियां थे
फैल-फैल बरगद की
जड़ें हो गए

तत्तीरेत के मरुथल पर
सांपों का पीछा
छाया के माथे पर
अंगारी टीका
दर्पण जो धोए-धोए थे आदर्श
काले ठीकरे हो गए

बहुत टोका सूरज को
छाया में आने से
बहुत रोका छाया को
आँगन से जाने से
शांत कण जो जीवन को जलकलश थे
आग के घड़े हो गए

मन के द्वीपों पर फैलते
पठारों का सूनापन
प्रेम के यीशु को बेंधता
कीलो का पैनापन
जहां-जहां बढ़े
पांव लीक से हटकर
वहां-वहां अग्निप्रश्न खड़े हो गए

पोखर को गटक गया
धूप का अजगर
प्यास की आंखों में
धूल और झक्खड़ जितने भी पल थे मोगरे की छांवों के
सब झुलसे इरादों से चिड़चिड़े हो गए