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चारु चंद्र की चंचल किरणें / मैथिलीशरण गुप्त

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चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।

पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से।

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छ-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?

बंद नहीं अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से,
कितने शांत और चुपचाप।

है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर।

और विराम-दायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
नया रूप छलकाता है।