भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आना / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:52, 19 जनवरी 2009 का अवतरण
आना
जब समय मिले
जब समय न मिले
तब भी आना
आना
जैसे हाथों में
आता है जांगर
जैसे धमनियों में
आता है रक्त
जैसे चूल्हों में
धीरे-धीरे आती है आँच
आना
आना जैसे बारिश के बाद
बबूल में आ जाते हैं
नए-नए काँटे
दिनों को
चीरते-फाड़ते
और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
आना
आना जैसे मंगल के बाद
चला आता है बुध
आना