भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विवश / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:11, 19 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन साहिल |संग्रह=एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / मोहन ...)
रोया नहीं मैं इसलिए
घोर विपत्ति में भी
हँसते रहना जरूरी है
मैंने पलकें समेटकर
फैला दिए हर बार होंठ
और हँस पड़ा इस विवशता पर
मेरी बूढ़ी माँ बिना दाँतों के खिलखिलाई
बच्चों ने मारे प्रसन्नता के
कलाबाज़ियाँ खाईं
पत्नी ने मेरे गाल पर काला निशान लगाया
और मित्र गले मिलकर
ठहाके लगाने लगा
मैं बहुत दिनों से
एकान्त ढूँढ रहा हूं।