भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जागते रहो / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:52, 20 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन साहिल |संग्रह=एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / मोहन ...)
हमसे कहकर-जागते रहो
वे चोरों के गिरोह में शामिल हो गए
हमने देखा जागते हुए
खुद को लुटते हुए
वे लूट ले गए
आसपास के पेड़, हवा और सुगंध
खुली आँखों के बावजूद
गिरे हम गड्ढों में
और वे हमपर पुल बनाकर गुज़्र गए
उनके निर्देशानुसार हमने दबा दी
अपने भीतर की आवाज़ें
जो झिंझोड़ रहीं थीं हमें
कह रही थीं कि
लुटेरों से अट चुकी है धरती
एक अँधेरा फैल रहा है चारों ओर
बावजूद जागने के नजर नहीं आएगा कुछ
मगर हम आँखें फाड़े जागते रहे निष्क्रिय
इसी मुद्रा में थक गए एक दिन हम
और सबकुछ छोड़-छाड़कर सो गए एक दिन
भले मानुषों की दुनिया का
वह एक काला दिन था।