कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग / शैल चतुर्वेदी
एक कवि सम्मेलन में
ऐसे श्रोता मिल गए
जिनकी कृपा से
कवियों के कलेगे हिल गए
एक अधेड़ कवि ने जैसे ही गाया-
" उनका चेहरा गुलाब क्या कहिए।"
सामने से आवज़ आई-
" लेके आए जुलाब क्या कहिए।"
और कवि जी
जुलाब का नाम सुनते ही
अपना पेट पकड़कर बैठ गए
दूसरे कवि ने माइक पर आते ही
भूमिका बनाई-
"न तो कवि हूँ
न कविता बनाता हूँ।"
आवाज़ आई-
"तो क्या बेवक़ूफ़ बनाता है भाई।"
कवि को पसीना आ गया
और वह घबराहट में
किसी और का गीत गा गया-
"जब-जब घिरे बदरिया कारी
नैनन नीर झरे।"
आवाज़ आई-"तुम भी कहाँ जाकर मरे
य कविता तो
लखनऊ वाली कवयित्री की है।"
कवि बोला-"हमने ही उसे दी है।"
आवाज़ आई-"पहले तो पल्ला पकड़ते हो
और जब हाथ से निकल जाती है
तो हल्ला करते हो।"
संयोजक ने संचालक से कहा-
"कविता मत सुनवाओ
जिसके पास गला है
उसको बुलवाओ।"
गले वाला कवि मुस्कुराया
और जैसे ही उसने नमूना दिखाया-
चटक म्हारा चम्पा आई रे रूत थारी
कोई श्रोता चिल्लाया-
"किस लोक गीत से मारी।"
कवि बोला-"हमारी है हमारी
विश्वास ना हो तो