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यह विवशता / शमशेर बहादुर सिंह

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यह विवशता
कभी बनती चाँद
कभी काला ताड़
कभी ख़ूनी सड़क
कभी बनती भीत, बांध
कभी बिजली की कड़क, जो
क्षण प्रतिक्षण चूमती-सी पहाड़।
यह विवशता
बना देती सरल जीवन को
ख़ून की आंधी
यह विवशता
मौन में भी है अथाह
भावनाओं के सलीब
स्वयं कांधा बन उठे-से हैं
कठिनतम।
हड्डियों के जोड़
खुल रहे हैं।
टूटते हैं बिजलियों के स्वप्न के आंसू;
आंख सी सूनी पड़ी है भूमि।

क्रांत अंतर में अपार
मौन।

(1945)