भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीने की जंग जारी रख / सरोज परमार
Kavita Kosh से
218.248.67.35 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 17:44, 29 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)
बूँद-बूँद बिखरने से बेहतर है
बावड़ी बन.
किसी पनिहारिन की पायल की
रुन-झुन सुन
वन पाँखी के झुण्डों की
कुलकुल सुन
शंख पुष्पी की उजास,सीलन की
ख़ुशबू चुन
हे मन...
क्या जाने कोई गबरू
तेरी जुगत पर सुस्ताए
राग पहाड़ी गाए
उठाए लहरे दे कर कंकर की गाली
शाख टँगे बच्चे की गूँजे किलकारी.
दो घूँट पी कर कोई याचक
तृप्ति का गठ्ठर ले जाएगा
तेरे जीने को अर्थ मिल जाएगा
इसलिए हे मन !
सीने की सारी आग समेट! उठ .
जीने की जंग जारी रख .