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दंगों में सृजन / सरोज परमार

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फ़िलहाल हवा हिला रही है
डालियाँ
अस्पताल के आँगन में
पर उसने गड़ा दिए हैं पंजे
चोंच में तिनका लिए हुए भी.
अपने नन्हें पंखों से काटती हवा को
रोशन दान के कोने में रखे
चंद तिनकों पर तहा आती है
धूल में नहाती चिड़िया ने
उठा लिए हैं ऊन के रेशे
कपड़े की कतरन
धुना हुआ पटसन
सजने लगा है घोंसला धीरे-धीरे
उसके कलरव में गूँज उठा है
उल्लास
उसकी उड़ान में बह रहा है
विश्वास
इठला रही है चिड़िया सृजन की
आस में
अस्पताल के गलियारे में
अपनी कोख में बच्चे छिपाए
माँएँ
बुदबुदा रही हैं प्राथनाएँ
दंगे ख़त्म होने के लिए.
उन्हें भय है
कि धुएँ के गुबार
उनके नन्हों की आँखों में न चुभ जाएँ.