भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आसमान तलाशना छोड़ परिन्दे / सरोज परमार

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:22, 30 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


परिन्दे!
क्यों आसमान तलाशता है
बित्ते भर पिंजड़े के आकाश को
छू कर सब्र, सब्र कर.

आदमी तो पिंजड़े जैसा ढूँढता फिरता है
छत मिलने से पहले
बढ़ते हैं तेज़ी से उसके पंख
बढ़ते हैं नाखून
लम्बी होती है जीभ
लेता है सपने सूरज निगलने के.
पिंजड़ा मिला नहीं
कि पंख किवाड़ के बाहर
मातमी धुन में दफ़नाए जाते हैं

शानदार आदमी
पिंजड़ों में जीते- मरते हैं.
आसमान तलाशना छोड़
परिन्दे .
चन्द मिर्ची कुतर
ठण्डा पानी पी
बोल राम! राम! राम!