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जहाज पर पक्षी / वेणु गोपाल

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उड़ना
बार-बार
और हर बार उसी जहाज पर लौट आना
अब नहीं होगा।

दूर ज़मीन दिखाई पड़ने लगी है
जहाज
बस, किनारा छूने ही वाला है
लेकिन
मैं फिर भी बेचैन हूँ

अब तक तो सब-कुछ तय था।

उड़ान की दिशाएँ भी।
उड़ान की नियति भी कि अपार
जलराशि के ऊपर थोड़ी देर पंख
फड़फड़ा लेना है
और फिर दुबारा लौटकर फिर वहीं आ जाना है।

अब
सब-कुछ मेरी मरज़ी पर निर्भर होगा

चाहूँ तो पहाड़ों की तरफ़ जा सकूंगा
जंगल की तरफ़ भी। या फिर से
आ सकूंगा किनारे पर खड़े जहाज की तरफ़।

भावी आज़ादी पंखों में फुरहरी
जगा रही है। ख़ुद को
बदलते पा रहा हूँ। और यह सब
ज़मीन के चलते
जो दिखाई पड़ने लगी है

पक्षी हूँ। पर
आसमान से ज़्यादा
ज़मीन से जुड़ा हूँ।
आँखों में अब ज़मीन ही ज़मीन है...।

और वे पेड़, जिन पर अगली रातों में
बसेरा करूंगा
वे पहाड़, जिन्हें पार करूंगा।
वे जंगल, जहाँ ज़िन्दगी बीतेगी
और ये सब एक निषेध है

कि पक्षी को
समुद्री-यात्रा पर जा रहे जहाज की ओर
मुँह नहीं करना चाहिए।