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था कहा कभीं “हे प्राणेश्वरि! मत पूछो कैसे जीता हॅ / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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था कहा कभीं “हे प्राणेश्वरि! मत पूछो कैसे जीता हॅ।
बाँधे घूमता सुधा-नीरधि पर प्रतिदिन प्रतिपल रीता हूँ।
मैं मृगनयनी का दृग-काजल विरही ”पंकिल“-दृग-गंगाजल।
हूँ रमणि-कपोल-अधर मदिरा असमय का आवारा बादल।
अनुशंसी सत्य-शिवम्-सुन्दर का प्रिया-मुखेन्दु-प्रशंसी हूँ।
मुग्धा राधा की पद पैंजनि मैं नटनागर की वंशी हूँ”।
जीवन-रस-सागर! आ विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥102॥