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“तुमको कितनी ही बार निहारा”, कहते थे, “लोचन-पुतरी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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“तुमको कितनी ही बार निहारा”, कहते थे, “लोचन-पुतरी!
लगता है अभीं कहाँ देखा है अहा! न आँखे अभी भरीं।
तुम विनत सजल श्यामल नीरद-सी उडुगण-सी सकुची-सकुची।
हो अनाघ्रात कमलिनी-कली सी स्निग्धा हिमकर-किरण-रची।
सखि! कम्बु ग्रीव पर राशि-राशि लहरता असित कोमल कुन्तल।
नव नील-वसन-वेष्टिता स्थिता हो जैसे दीपशिखा अविचल”।
छवि-द्रष्टा! अब आ जा, विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥135॥